आख़िर क्यों झारखंड की स्थापना के 23 साल बाद भी सिर्फ़ दो आदिवासी महिला ही पहुँचीं संसद

आख़िर क्यों झारखंड की स्थापना के 23 साल बाद भी सिर्फ़ दो आदिवासी महिला ही पहुँचीं संसद

झारखंड में अभी तक केवल दो आदिवासी महिला ही सांसद बन सकीं, जबकि जनजातीय बाहुल्य आबादी के कारण इस राज्य में आदिवासियों के लिए चार लोकसभा सीट राजमहल, दुमका, सिंहभूम, खूंटी व लोहरदग्गा आरक्षित हैं.

झारखंड की जनजातीय आरक्षित सीट में से तीन लोकसभा सीट खूंटी, सिंहभूम व लोहरदग्गा में चौथे चरण एवं राजमहल में सातवें चरण में मतदान होना है. यहाँ महिला मतदाता ही प्रत्याशियों की जीत और हार तय करेंगी, क्योंकि इन सीटों पर महिला मतदाताओं की संख्या पुरुषों की तुलना में अधिक है. खूंटी लोकसभा सीट पर 6,67,946 महिला मतदाता हैं, जो पुरुष मतदाता से 23,635 अधिक हैं.

ग़ौरतलब है कि इंडिया गठबंधन (INDIA) का गढ़ माने जाने वाली सिंहभूम लोकसभा सीट ही साल 2019 में कांग्रेस की एकमात्र सीट रही. इस चुनाव में इसी सीट से कांग्रेस की सांसद गीता कोड़ा हाल में बीजेपी में शामिल होने के बाद सिंहभूम सीट से प्रत्याशी हैं. इस सीट पर पुरुषों के मुकाबले महिला मतदाताओं की संख्या 22,567 अधिक है. वहीं, राजमहल सीट पर कुल 16,82,219 मतदाता हैं; जिसमें महिला मतदाता पुरुषों की तुलना में 222 अधिक हैं. जबकि, लोहरदगा लोकसभा सीट पर 7,07,402 पुरुष मतदाताओं के मुकाबले 7,19,616 महिला मतदाता हैं; जो पुरुषों से 12,214 अधिक हैं.

राज्य की स्थापना के बाद केवल दो जनजातीय सांसद

झारखंड की स्थापना के बाद राज्य में साल 2004, 2009, 2014 व 2019 के दौरान लोकसभा चुनाव हुए. वर्ष 2009 और 2014 लोकसभा चुनावों के दौरान किसी आदिवासी महिला को संसद जाने का अवसर नहीं मिला, जबकि झारखंड की स्थापना ही एक आदिवासी राज्य के तौर पर हुई. बावजूद उसके यहां केवल 2004 व 2019 लोकसभा चुनाव के दौरान ही आदिवासी महिला को सांसद बनने का मौक़ा मिला, जबकि जनजातीय लिंगानुपात के अनुसार झारखंड में 1000 आदिवासी पुरुषों पर 1003 आदिवासी महिलाएं हैं.

साल 2004 लोकसभा चुनाव में खूंटी से सुशीला केरकेट्टा व 2019 में गीता कोड़ा सिंहभूम ज़िला से जीत कर संसद पहुँची. जबकि, साल 2009 व 2014 लोकसभा चुनाव में कोई आदिवासी महिला चुनाव जीत ही नहीं सकी.


सुभाष हेम्ब्रम •

झारखंड के आदिवासी एक्टिविस्ट सुभाष हेम्ब्रम का कहना है कि झारखंड भारत का एक जनजातीय बहुल राज्य है, जहां कुल 32 जनजातियां पाई जाती हैं; जिनकी आबादी लगभग 86,45,042 है - यानी झारखंड की कुल आबादी का 26.2 फ़ीसद. उनमें से आठ आदिम जनजातियां हैं, जिनकी जनसंख्या 1,92,425 है - कुल आबादी का 0.72%.

वह आगे कहते हैं, “मान लें कि झारखंड की 86 लाख आदिवासियों की आबादी में 43 लाख महिलाएं हैं; तो विचार करने की बात है कि उन महिलाओं के साथ राजनीतिक दल किस प्रकार से सौतेला व्यवहार कर रहे हैं. पार्टियाँ आज भी हिम्मत नहीं जुटा पा रही हैं कि महिलाओं को टिकट दें और विजयी बना कर लोकसभा भेजें.”

सिमडेगा की आदिवासी वोटर तारानी साहू कहती हैं कि आज भी हमारे आदिवासी समाज के अध्यक्ष जैसे मानकी-मुण्डा पुरुष ही होते हैं, महिलाओं को कम ही आगे बढ़ने का मौक़ा मिलता है. जबकि, झारखंड को अलग राज्य बनाने के लिए किये गए संघर्ष में पुरुषों के बराबर महिलाओं ने भी भाग लिया. अगर भगवान बिरसा मुण्डा ने संघर्ष किया तो फूलो-झानो ने भी आज़ादी के लिए संघर्ष किया; बावजूद उसके आज भी महिला समाज बराबरी हेतु अधिकार मिलने की राह देख रहा है.

वह आगे कहती हैं कि “महिलाओं को नेतृत्व तो मिल रहा है, लेकिन उतना भी नहीं कि वह सांसद बनें. महिलाओं को जो भी अवसर मिल रहा है वह पुरुषों के बाद, जबकि बात बराबरी की हो रही है तो महिलाओं को समान अधिकार मिलना चाहिेए.”

क्या कहते हैं राजनीतिक दल?

झारखंड की कांग्रेस नेता व पूर्व मंत्री गीताश्री उरांव आदिवासी महिलाओं की संसद में ग़ैर-मौजूदगी को लेकर कहती हैं, “यह तो सच है कि आदिवासी महिलाओं की मौजूदगी संसद में नहीं है.” लेकिन क्यों? इस पर वह कहती हैं, “सीट बँटवारे का निर्णय आलाकमान से होता है. महिलाओं को केंद्र में रख कर आरक्षण की राजनीति तो की जाती है, लेकिन जब उन्हें मौक़ा देना का वक़्त आता है तो यू-टर्न ले लिया जाता है; ऐसे में सवाल उठता है कि बोलने और करने में अंतर क्यों हो जाता है!”

बोलने और करने में अंतर के सवाल पर पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा की पत्नी व सिंहभूम संसदीय सीट से भाजपा प्रत्याशी गीता कोड़ा कहती हैं कि “हमारी पार्टी ने इस अंतर को कम करने की कोशिश की है. भाजपा ने सिंहभूम लोकसभा सीट से गीता कोड़ा, तो दुमका से सीता सोरेन को टिकट दिया है. अत: हमारी पार्टी तो महिला आरक्षण को अमल में लाने के लिए प्रयासरत है.”

वह आगे कहती हैं, “आदिवासी महिला का प्रतिनिधित्व संसद में बहुत कम है, जो चिंताजनक है. महिला को पंचायत स्तर पर मौक़ा मिला तो वे शानदार काम कर रही हैं. अगर उन्हें लोकसभा व विधानसभा में अवसर मिलेगा तो वहाँ भी वे बेहतर काम करेंगी.”

गीता कोड़ा की बात से सहमत कांग्रेस नेता ज्ञीताश्री कहती हैं, “ऐसा नहीं है कि आदिवासी महिलाओं में योग्यता नहीं; मौक़ा तो दें, परिणाम भी मिलेगा.”


महुआ माजी •

वहीं, झारखंड से राज्यसभा सांसद महुआ माजी कहती हैं, “भाजपा ने जिन दो जनजातीय महिला को टिकट दिया, वह तो इंडिया गठबंधन से ही गई हैं. भाजपा के पास राज्य स्तर पर अपने कोई प्रत्याशी ही नहीं थे. जबकि, हमने पंचायत एवं ज़िला परिषद स्तर पर महिलाओं के लिए 50 फ़ीसद सीट आरक्षित कर उन्हें राजनीति में आने का मौक़ा दिया. आज ग्रामीण स्तर पर मुखिया व पार्षद महिलाएं हैं, जो राजनीतिक तौर पर सशक्त हो रही हैं. आने वाले दिनों में ये महिलाएं विधायक और सांसद बनती दिखेंगी. एक ही दिन में कोई सांसद तो बन नहीं सकता, लेकिन धीरे-धीरे बदलाव दिखेगा.”


मेरी निशा हांस्दा •

क्या कहती हैं आदिवासी महिलाएं?

राजमहल सीट से साल 2019 का लोकसभा चुनाव लड़ने वाली संथाली एक्टिविस्ट, मेरी निशा हांस्दा को तब मात्र 2948 वोट मिले थे. संसद में जनजातीय महिलाओं का न के बराबर प्रतिनिधित्व होने के लिए वह राजनीतिक दलों को ज़िम्मेदार ठहराती हैं. उनका कहना है कि राजनीतिक दल वह चाहे क्षेत्रीय हों या राष्ट्र स्तर के; सभी पितृसत्तात्मक सोच से ग्रसित हैं. ऐसे में महिला को पहले राजनीतिक दल में पुरुषों के मुक़ाबले ख़ुद को साबित करना पड़ता है. उसके बाद भी अगर महिलाएं प्रत्याशी बनाई जाती हैं, तो उन्हें दूसरे दलों के पुरुषों की तुलना में स्वयं को साबित करना होता है. ऐसे में यदि महिला को बड़े राजनीतिक दल ने टिकट नहीं दिया तो उसकी हार चुनाव पूर्व ही आंख बंद करके स्वीकार कर ली जाती है.

हांस्दा आगे कहती हैं, “यह अलग बात है कि उस महिला ने बतौर सामाजिक कार्यकर्ता कितने ही लोगों की कितनी ढंग से मदद की हो, बावजूद उसके पुरुष प्रधान समाज का मतदाता महिला प्रत्याशी द्वारा किये गए कार्य से आँखें फेर लेता है. मतदाता उसकी तुलना पहले तो पुरुष प्रत्याशी से और उसके बाद महिला के राजनीतिक दल से करते हुए उसको कमतर आंकता है. परिणामस्वरूप महिला प्रत्याशी को जीत नहीं मिलती.”

आख़िर इसका हल क्या है? इस सवाल पर सामाजिक कार्यकर्ता सुभाष हेम्ब्रम कहते हैं कि जब तक महिला को समाज में बराबरी नहीं मिलेगी; ये हालात नहीं बदलने वाले.

जबकि, मेरी निशा हांसदा कहती हैं कि समाज में पुरुष प्रधान सोच बदलने वाली ही नहीं; एक दिन ऐसा आएगा जब देश में दो ही राजनीतिक दल होंगे - एक पुरुष का तो दूसरा महिला का.

वहीं, आदिवासी एक्टिविस्ट आलोका कुजुर कहती हैं, “चाहे गीता कोड़ा हों या सुशीला केरकेट्टा; उनके राजनीतिक दल से संबंध होने के कारण उनको राजनीति का हिस्सा बनने का अवसर मिला. वरना यहाँ कोई भी पार्टी किसी आम महिला को आगे बढ़ने का अवसर नहीं देती हैं.”

वह आगे कहती हैं, “हमारे जैसी महिला सोशल सेक्टर से आई हैं; जिनका अपना वज़ूद है, लेकिन जब हम राजनीतिक दलों से टिकट माँगते हैं तो हमें ये कह कर टिकट नहीं दिया जाता कि आप सामाजिक कार्यकर्ता हैं, न कि राजनीतिक कार्यकर्ता.”

“सभी राजनीतिक दल जेंडर इक्वलिटी की बात करते हैं लेकिन अपनी ज़रूरत के अनुसार, न कि महिला के उत्थान के लिए. यही कारण है कि महिला समाज आज भी हाशिये पर है,” आलोका कुजुर अपनी बात में जोड़ती हैं.

वह कहती हैं कि “लोकसभा चुनाव 2029 से पहले जब परिसीमन लागू होगा, तब शायद 33 फ़ीसद महिला आरक्षण लागू हो जाए और उसके बाद संसद में महिला की संख्या बढ़े. लेकिन सवाल तब भी वही होगा कि हम जैसी आम महिला शायद ही संसद पहुँचे, क्योंकि उस आरक्षण का लाभ राजनीतिक घरानों के लिए होगा.”

इस पर कांग्रेस नेता व झारखंड सरकार में मंत्री रामेश्वर उरांव कहते हैं, “मेरा मानना है कि 33 फ़ीसद आरक्षण लागू होता है तो आप आम महिलाओं को संसद तक पहुँचते देखेंगे. झारखंड में आदिवासी महिला का नेतृत्व पंचायत स्तर पर बढ़ता देखा जा सकता है.”

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